हर एक बंदिश-ए-ख़ुद-साख़्ता बयाँ से उठा तकल्लुफ़ात का पर्दा भी दरमियाँ से उठा फ़क़त ख़ला ही नहीं है सदा लगाते चलो कि अब्र-ए-बारिश-ए-नैसाँ भी आसमाँ से उठा शजर के साए में बैठा हूँ मैं तुझे क्या है जो हो सके तो मुझे अपने आस्ताँ से उठा फ़ुसूँ-तराज़ थी कब चश्म-ए-नीम-वा इतनी लहू का फ़ित्ना मगर ज़ेब-ए-दास्ताँ से उठा नज़र न आई जो राह-ए-मफ़र तो फिर मैं भी धुआँ धुआँ सा सर-ए-बज़्म-ए-दोस्ताँ से उठा यहाँ की रस्म है 'सहबा' कसाद-बाज़ारी ये जिंस-ए-दिल है बड़ी बे-बहा दुकाँ से उठा