हर एक दर्द को हर्फ़-ए-ग़ज़ल बना दूँगा चला तो हूँ कि तिरी रहगुज़र दिखा दूँगा ग़म-ए-हयात मिरे साथ साथ ही रहना पयम्बरी से तिरा सिलसिला मिला दूँगा अगर वहाँ भी तिरी आहटें न सुन पाऊँ तो आरज़ू की हसीं बस्तियाँ जला दूँगा न इंतिज़ार न आहें न भीगती रातें ख़बर न थी कि तुझे इस तरह भुला दूँगा कुछ और तीरगी-ए-शाम-ए-ग़म सही 'जामी' कुछ और अपने चराग़ों की लौ बढ़ा दूँगा