हर एक गाम पे रंज-ए-सफ़र उठाते हुए मैं आ पड़ा हूँ यहाँ तुझ से दूर जाते हुए अजीब आग थी जिस ने मुझे फ़रोग़ दिया इक इंतिज़ार में रक्खे दिए जलाते हुए तवील रात से होता है बरसर-ए-पैकार सो चाक तेज़ हुआ है मुझे बनाते हुए ये तेज़-गामी-ए-सहरा अलग मिज़ाज की है जो मुझ से भाग रही है क़रीब आते हुए है एक शोर-ए-गुज़िश्ता मिरे तआक़ुब में मैं सुन रहा हूँ जिसे अपने पार आते हुए शरीक-ए-आतिश ओ आब-ओ-हवा ओ ख़ाक रहे मिरे अनासिर-ए-तरतीब शक्ल पाते हुए बहुत क़रीब से गुज़री है वो नवा-ए-सफ़ेद मिरे हवास का नीला धुआँ उड़ाते हुए मैं इम्तिज़ाज-ए-क़दीम-ओ-जदीद हूँ 'कामी' सो इस्म-ए-अस्र ही पढ़ना मुझे बुलाते हुए