हर एक का वो दर्द-ए-जिगर भूल गए हैं क्या अपनी निगाहों का असर भूल गए हैं अल्लाह रे इस बे-ख़ुदी-ए-इश्क़ का आलम देखा है कहीं उन को मगर भूल गए हैं सीना है मगर इश्क़ के अनवार से ख़ाली रहरव हैं मगर ज़ाद-ए-सफ़र भूल गए हैं देखो तो नए दौर की आशुफ़्ता-सरी को जो अहल-ए-हुनर थे वो हुनर भूल गए हैं जब से गुल-ए-ख़ुश-रंग की देखी है तबाही कलियों के तबस्सुम का असर भूल गए हैं 'शाइर' दिल-ए-बर्बाद है मसरूर हमारा शायद असर-ए-शाम-ओ-सहर भूल गए हैं