हर इक मंज़िल क़याम-ए-रहगुज़र मालूम होती है हमें तो ज़िंदगी पैहम सफ़र मालूम होती है वही तन्हाई का आलम वही बे-रौनक़ी हर सू बयाबाँ तेरी ख़ामोशी भी घर मालूम होती है हमारे हासिदों की चाल आख़िर रंग ले आई बहुत बदली हुई उन की नज़र मालूम होती है मसीहा भूल जा तेरी दवा कुछ काम आएगी कि हर तदबीर अब तो बे-असर मालूम होती है अगर दो वक़्त की रोटी ही मिल जाए ग़नीमत है मियाँ फ़ाक़े में गुठली भी समर मालूम होती है अँधेरी रात में ऐ जान-ए-जाँ भटके मुसाफ़िर को दिए की लौ भी जैसे इक क़मर मालूम होती है