हर एक शख़्स के विज्दान से ख़िताब करे नए लिबास की ख़्वाहिश नया बदन ढूँडे समुंदरों में उतरते चले गए लेकिन कसाफ़तों के जरासीम साथ साथ रहे न जाने कौन ग़म-ए-काएनात से छुप कर मिरे वजूद में बैठा है कुंडली मारे शुऊरी तौर पर इरफ़ान-ए-ज़ात की ख़ातिर कभी जो सर को उठाया तो टूट-फूट गए तअ'ल्लुक़ात की ज़ंजीरें टूटती ही नहीं हमें पुकार रहे हैं ख़ला के बाशिंदे