हर एक शख़्स को दुश्मन अगर बनाओगे मिज़ाज पूछने वाला कहाँ से लाओगे जो सब को अपने ही मेआ'र पर परखते रहे तो ज़िंदगी में किसे हम-सफ़र बनाओगे यहाँ तो हर कोई चेहरे पे चेहरे रखता है उठा के पहलू से किस को किसे बिठाओगे तुम्हें उसूल तुम्हारे ही मार डालेंगे न अपने आप को इन से अगर बचाओगे चराग़ जलने लगेंगे तुम्हारी राहों में जो दूसरों के घरों में दिए जलाओगे ये अहद तुम से अगर हो सके तो कर लेना हमारे बा'द किसी का न दिल दिखाओगे नहीं झुकोगे अगर इक ख़ुदा के आगे तुम न जाने कितने दरों पर ये सर झुकाओगे वो तुम से रूठ गई जो मकाँ की रौनक़ थी ग़रीब-ख़ाने को अब किस लिए सजाओगे सुपुर्द-ए-ख़ाक तो कर आए माँ को तुम 'अतहर' ग़मों की धूप में साया कहाँ से पाओगे ये बे-हिसों की है बस्ती तो फिर 'शकील' यहाँ सदाक़तों का किसे आइना दिखाओगे