हर घड़ी चलती है तलवार तिरे कूचे में रोज़ मर रहते हैं दो चार तिरे कूचे में हाल सर का मिरे ज़ाहिर है तिरे क्या कीजे कोई साबित भी है दीवार तिरे कूचे में शक्ल को क्यूँकि न हर दफ़अ बदल कर आऊँ हैं मिरी ताक में अग़्यार तिरे कूचे में ग़म से बदली है मिरी शक्ल तो बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर दिन को भी आते हैं सौ बार तिरे कूचे में न करे सू-ए-चमन भूल के भी रुख़ हरगिज़ आन कर बुलबुल-ए-गुलज़ार तिरे कूचे में नरगिस्ताँ न समझ खोली हुई आँखों को हैं तिरे तालिब-ए-दीदार तिरे कूचे में लाए जब घर से तो बेहोश पड़ा था 'आरिफ़' हो गया आन के होशियार तिरे कूचे में