हर घड़ी इक यही एहसास-ए-ज़ियाँ रहता है आग रौशन थी जहाँ सिर्फ़ धुआँ रहता है ख़त्म होता ही नहीं दश्त का अब सन्नाटा कोई मौसम हो यहाँ एक समाँ रहता है आ गई रास मिरे दिल की उदासी शायद इतनी मुद्दत भी कहीं दौर-ए-ख़िज़ाँ रहता है फूल खिलते हैं तो मुरझाए हुए लगते हैं इक अजब ख़ौफ़ सर-ए-शाख़-ए-गुमाँ रहता है साज़ के तार हैं टूटे हुए मुतरिब चुप हैं अब फ़ज़ाओं में फ़क़त शोर-ए-सगाँ रहता है रास्ता चलते हुए लोग ठिठक जाते हैं हर-क़दम जैसे तह-ए-संग-ए-गराँ रहता है मैं भी रुक जाऊँ मगर रुक नहीं पाता 'आलम' एक दरिया सा सदा मुझ में रवाँ रहता है