हर इक लब पर ख़मोशी की सदा थी दुआओं में बदलती सी हवा थी कुशादा फैलते आँगन दिलों के सभी के वास्ते घर में जगह थी जिसे समझे हुए थे रौशनी हम किसी माँ की परी जैसी दुआ थी जो बच्ची खेलती थी नंगे पैरों वो पहली रुत की ही जैसे घटा थी रतन जाना था जिस को मंथनों का घड़ी वो ज़िंदगी भर की सज़ा थी भँवर थे दाएरों के आसमाँ में ये गर्दिश एक नुक़्ते की ख़ता थी