हर इक शिकस्त को ऐ काश इस तरह मैं सहूँ फ़ुज़ूँ हो और भी दिल में तिरी तलब का फ़ुसूँ तुम्हारे जिस्म की जन्नत तो मिल गई है मगर मैं अपनी रूह की दोज़ख़ का क्या इलाज करूँ हँसा हूँ आज तो मजबूर था कि तेरे हुज़ूर मुझे ये डर था अगर चुप रहा तो रो न पड़ूँ तमाम उम्र न भटके कहीं तू मेरी तरह हूँ कश्मकश में जो कहना है वो कहूँ न कहूँ न अब पुकार मुझे मुद्दतों की दूरी से तिरे क़रीब नहीं हूँ कि तेरी बात सुनूँ तिरी तलाश को निकलूँगा इस से पहले मगर मैं तेरी याद के सहरा में ख़ुद को ढूँड तो लूँ वो देख ले तो न रोए बिना रहे 'आज़ाद' मैं सोचता हूँ कि इक बार ख़ुद पे यूँ भी हँसूँ