हर ज़र्रा-ए-उम्मीद से ख़ुशबू निकल आए तन्हाई के सहरा में अगर तू निकल आए कैसा लगे इस पार अगर मौसम-ए-गुल में तितली का बदन ओढ़ के जुगनू निकल आए फिर दिन तिरी यादों की मुंडेरों पे गुज़ारा फिर शाम हुई आँख में आँसू निकल आए बेचैन किए रहता है धड़का यही जी को तुझ में न ज़माने की कोई ख़ू निकल आए फिर दिल ने किया तर्क-ए-तअल्लुक़ का इरादा फिर तुझ से मुलाक़ात के पहलू निकल आए