हर कोई उस का ख़रीदार हुआ चाहता है गर्म फिर हुस्न का बाज़ार हुआ चाहता है देख लेना ग़म-ए-माशूक़ में कुढ़ते कुढ़ते कुछ न कुछ अब मुझे आज़ार हुआ चाहता है आँख ललचाई हुई पड़ती है जिस पर मेरी इश्क़ उस पर मिरा इज़हार हुआ चाहता है कह दो उस पर्दा-नशीं से तिरी ख़ातिर कोई आज रुस्वा सर-ए-बाज़ार हुआ चाहता है पान खा खा के लब-ए-बाम पे वो आने लगा ख़ूँ हमारा पस-ए-दीवार हुआ चाहता है कूचा-ए-यार में जाता है अबस तू 'ग़ाफ़िल' क्यूँ मुसीबत में गिरफ़्तार हुआ चाहता है