हर लहज़ा मिरी ज़ीस्त मुझे बार-ए-गराँ है वो मेरा लहू है कि मिरा दुश्मन-ए-जाँ है इस दौर में जीने की सज़ा काट रहा हूँ हर साँस की रफ़्तार में एहसास-ए-ज़ियाँ है उड़ जाते हैं शाख़ों से सहर होते ही ताइर बस रैन-बसेरा है यहाँ जो भी मकाँ है दोनों ही जुनूँ-ख़ेज़ी के तूफ़ाँ में गिरफ़्तार तहज़ीब-ए-इबादत न यहाँ है न वहाँ है रिश्ते सभी ज़ंजीर-ए-ज़रूरत से जुड़े थे अब कौन ये पूछे कि 'तक़ी' है तो कहाँ है