हर लम्हा सैराबी की अर्ज़ानी है मिट्टी के कूज़े में ठंडा पानी है चुपके चुपके रोता है तन्हाई में वो जो शहर के हर मेले का बानी है नदी किनारे शहर पनाहें बालों की सावन की बौछारें हैं तुग़्यानी है बाहर धूप समुंदर सुर्ख़ बगूले भी अंदर हर ख़ुलिए में रुत बर्फ़ानी है उस ने हर ज़र्रे को तिलिस्म-आबाद किया हाथ हमारे लगी फ़क़त हैरानी है मेरे दश्त को शायद उस ने देख लिया धूप शबनमी हर-सू मंज़र धानी है जाने क्या बरसा था रात चराग़ों से भोर समय सूरज भी पानी पानी है उस ने हर लम्हा ख़ुद को यूँ राम किया हर पैकर में उस की राम-कहानी है कच्चा घर आता है याद बहुत 'अम्बर' कहने को शहरों में हर आसानी है