हर पल मैं तड़प कर दम-ए-आख़िर हुआ जाता हूँ आशिक़ था मैं पोशीदा ज़ाहिर हुआ जाता हूँ इस उम्र-ए-जहालत में दिल ख़ाना-का'बा था अब इल्म-ओ-हुनर पा कर काफ़िर हुआ जाता हूँ ये कैसे भला कह दूँ बख़्शा नहीं कुछ उस ने हर साँस पे मैं उस का शाकिर हुआ जाता हूँ इक बार किया मैं ने बस प्यार अनाड़ी सा हाँ प्यार को लिख लिख कर माहिर हुआ जाता हूँ