हर रंग-ए-तरब मौसम ओ मंज़र से निकाला इक रास्ता फिर सई-ए-मुकर्रर से निकाला चलने लगी हर सम्त से जब बाद-ए-ख़ुश-आसार इक और भँवर हम ने समुंदर से निकाला देती रही आवाज़ पे आवाज़ ये दुनिया सर हम ने न फिर ख़ाक की चादर से निकाला कम पड़ गई पर्वाज़ को जब वुसअत-ए-अफ़्लाक इक और फ़लक अपने ही शहपर से निकाला हम दिल से रहे तेज़ हवाओं के मुख़ालिफ़ जब थम गया तूफ़ाँ तो क़दम घर से निकाला अब कैफ़ियत ओ रंग नज़र आई जो दुनिया मौसम नया फिर अपने ही अंदर से निकाला आसार नज़र आए न सैराबी-ए-दिल के थक-हार के सौदा-ए-नुमू सर से निकाला