हर रोज़ हमें घर से सहरा को निकल जाना खेतों का मज़ा लेना जंगल को निकल जाना जी क्यूँ न भला उन की फिर भौं पे लगे अपना इक वुसअत-ए-मशरब के है साथ ये वीराना सत्ह पे ज़मीं की है ता-हद्द-ए-नज़र सब्ज़ा क्या सैर का आलम है अपना है न बेगाना हम इश्क़-ए-हक़ीक़ी के ये रंग समझते हैं ने लैला न मजनूँ है ने शम्अ' न परवाना जिस हुस्न के जल्वे हैं आरिफ़ की निगाहों में वो हुस्न बनावे है का'बे को सनम-ख़ाना दीवाना-ए-शहरी तो दीवार का साया ले साए में मुग़ीलाँ के बैठेगा ये दीवाना ग़ुर्बत के बयाबाँ में है 'मुसहफ़ी' आवारा ऐ ख़िज़्र-ए-ख़जिस्ता पे टुक राह तू बतलाना