हर सम्त परेशाँ तिरी आमद के क़रीने धोके दिए क्या क्या हमें बाद-ए-सहरी ने हर मंजिल-ए-ग़ुरबत पे गुमाँ होता है घर का बहलाया है हर गाम बहुत दर-ब-दरी ने थे बज़्म में सब दूद-ए-सर-ए-बज़्म से शादाँ बे-कार जलाया हमें रौशन-नज़री ने मय-ख़ाने में आजिज़ हुए आज़ुर्दा-दिली से मस्जिद का न रक्खा हमें आशुफ़्ता-सरी ने ये जामा-ए-सद-चाक बदल लेने में क्या था मोहलत ही न दी 'फ़ैज़' कभी बख़िया-गरी ने