हर सम्त समुंदर है हर सम्त रवाँ पानी छागल है मिरी ख़ाली सोचो है कहाँ पानी बारिश न अगर करती दरिया में रवाँ पानी बाज़ार में बिकने को आ जाता गिराँ पानी ख़ुद-रौ है अगर चश्मा आएगा मिरी जानिब मैं भी वहीं बैठा हूँ मरता है जहाँ पानी कल शाम परिंदों को उड़ते हुए यूँ देखा बे-आब समुंदर में जैसे हो रवाँ पानी जिस खेत से दहक़ाँ को मिल जाती थी कुछ रोज़ी उस खेत पे देखा है हाकिम है रवाँ पानी चश्मे की तरह फूटा और आप ही बह निकला रखता भला मैं कब तक आँखों में निहाँ पानी बह जाती है साथ उस के शहरों की ग़लाज़त भी जारूब-कश-ए-आलम लगता है रवाँ पानी बस एक ही रेले में डूबे थे मकाँ सारे 'अनवर' का वहीं घर था बहता था जहाँ पानी