हर सम्त सुकूत बोलता है ये कौन से जुर्म की सज़ा है हैं पाँव लहूलुहान लेकिन मंज़िल का पता तो मिल गया है अब लाए हो मुज़्दा-ए-बहाराँ जब फूल का रंग उड़ चुका है ज़ख़्मों के दिए की लौ मैं रक़्साँ अर्बाब-ए-जुनूँ का रत-जगा है अब तेरे सिवा किसे पुकारूँ तू मेरे वजूद की सदा है