हर शय है काएनात की अपनी जगह अहम बरतर कोई किसी से न कोई किसी से कम समझे रज़ा ख़ुदा की तो आँखें हुई हैं नम ज़ाहिर में जो सज़ा थी हक़ीक़त में था करम ग़ाज़ी बड़ा है कोई न छोटा ग़ज़ल-सरा अपनी जगह पे तेग़ है अपनी जगह क़लम इस ख़ाक-दाँ को दोस्तो कैसे कहें चमन गो फूल हैं कहीं कहीं काँटे क़दम क़दम सूरज ढले कि चाँद खिले हम को क्या ख़बर गुज़रे जो शाम-ए-ग़म तो फिर आए शब-ए-अलम दे के 'सदा' ख़ुदा मिरे तू रोकना मुझे गर राह-ए-मुस्तक़ीम से भटकें मिरे क़दम