हर शाख़-ए-गुल को बे-सर-ओ-सामाँ बना दिया यारों ने गुल्सिताँ को बयाबाँ बना दिया तख़्लीक़ सब की एक है आ'माल ने मगर काफ़िर तुझे तो मुझ को मुसलमाँ बना दिया इस जान-ए-गुल्सिताँ की तमन्ना ने ऐ नदीम मुझ को हर इक चमन से गुरेज़ाँ बना दिया दुश्वार हो चुकी थी मुझे ज़िंदगी मगर साक़ी-ए-दिल-नवाज़ ने आसाँ बना दिया 'आसी' ख़ुदा का शुक्र करो जिस के लुत्फ़ ने औरों के साथ तुम को भी इंसाँ बना दिया