हर सुब्ह-ए-दरख़्शाँ मेरे लिए पैग़ाम-ए-मसर्रत होती है या'नी इक दिन कम और हुआ अब मौत से क़ुर्बत होती है दुनिया के मुँह से सुनता हूँ और सुन कर सोचता रहता हूँ जो नींद से इक दम जाग उठे ऐसी भी क़िस्मत होती है हस्ती की करवट पैक-ए-अजल और पैक-ए-अजल पैग़ाम-ए-सुकूँ हस्ती जब करवट लेती है आलाम से फ़ुर्सत होती है मंजधार से कश्ती बच निकली तो साहिल से मजरूह हुई मल्लाह पे अब ये भेद खुला क़िस्मत फिर क़िस्मत होती है अल्लाह रे सोला साल का सिन रफ़्तार नई गुफ़्तार नई इस उम्र की क्या तारीफ़ करूँ ये उम्र क़यामत होती है नज़रों से नज़रें मिलते ही शर्माना झिजकना झुँझलाना ओ नाज़-ओ-अदा वाले यूँ भी ताईद-ए-मोहब्बत होती है हर रोज़ कहाँ गाहे-गाहे और वो भी बस इक दो जुरए मैं भी पी लेता हूँ 'बिस्मिल' जब उस की रहमत होती है