हर तरफ़ पत्थर ही पत्थर दरमियाँ शीशे का घर ले रहा है शायद अपना इम्तिहाँ शीशे का घर दूर तक हर सम्त हैं लाखों धनक बिखरे हुए टूट कर है और भी कुछ ज़ौ-फ़िशाँ शीशे का घर क्यों घने पेड़ों के सायों से बुलाता है उन्हें बन रहा है क्यों मज़ाक़-ए-रह-रवाँ शीशे का घर है ये बेहतर पत्थरों के दौर में वापस चलें धीरे धीरे बन गया सारा जहाँ शीशे का घर नम ज़मीं पर टूटी फूटी फूस की छत के तले कर रहा हूँ याद देखा था कहाँ शीशे का घर उस की शफ़्फ़ाफ़ी ही उस का हुस्न उस की ज़िंदगी कैसे बन जाएगा 'तय्यब' साएबाँ शीशे का घर