हरा-भरा था कभी झाड़ सा बदन मेरा कि आइनों में झलकता था बाँकपन मेरा चराग़ ले के मुझे ढूँडने निकलता था मिरे बग़ैर न रहता था हम-सुख़न मेरा सियाहियों के भँवर से निकल के आया हूँ धुला रही है उजालों से मुँह किरन मेरा सियाह फूल खिला धूप की मुंडेरों पर हवा में टाँग दिया किस ने पैरहन मेरा मैं रेग-ज़ार पे लिक्खी हुई इबारत हूँ हवा चलेगी तो उड़ जाएगा बदन मेरा बला रही है मुझे बर्फ़ से ढकी चोटी पड़ा हुआ है चटानों के घर कफ़न मेरा शुमार होने लगे मोतियों में कंकर भी 'ख़लील' काम तो आया किसी के फ़न मेरा