हर-चंद भरे दिल में हैं लाखों ही गिले पर क्या कहिए कि खुलता नहीं मुँह वक़्त मिले पर बे-दर्द वो ऐसा है कि मरहम की जगह हाए छिड़के है नमक मेरे हर इक ज़ख़्म छिले पर ता दिल को न वाशुद हो तो क्या लुत्फ़ मिले हाए खिलती है जो बू ग़ुंचा-ए-गुल की तो खिले पर मशहूर जवानी में हो वो क्यूँ न जगत-बाज़ मैलान-ए-तबीअत था लड़कपन से ज़िले पर हम गुलशन-ए-हैरत में हैं पर्वाज़ कहाँ की जूँ बुलबुल-ए-तस्वीर कभी टुक न हिले पर सुन वस्फ़-ए-दहन दीजिए कुछ मुँह से पियारे मुझ शाएर-ए-मुफ़्लिस की है गुज़रान सिले पर किस मुँह से बयाँ कीजिए वो लुत्फ़ कि 'जुरअत' दुश्नाम जो वाँ मिलती हैं टुक आँख मिले पर