हरीफ़-ए-दास्ताँ करना पड़ा है ज़मीं को आसमाँ करना पड़ा है निकल कर आ गए हैं जंगलों में मकाँ को ला-मकाँ करना पड़ा है सवा नेज़े पे सूरज आ गया था लहू को साएबाँ करना पड़ा है बहुत तारीक थीं हस्ती की राहें बदन को कहकशाँ करना पड़ा है किसे मालूम लम्स उन उँगलियों का हवा को राज़-दाँ करना पड़ा है वो शायद कोई सच्ची बात कह दे उसे फिर बद-गुमाँ करना पड़ा है मैं अपने सारे पत्ते फ़ाश करता मगर ऐसा कहाँ करना पड़ा है सफ़र आसाँ नहीं हरफ़ ओ क़लम का हमें तय हफ़्त-ख़्वाँ करना पड़ा है था जिस से इख़्तिलाफ़-ए-राय मुमकिन उसी को मेहरबाँ करना पड़ा है सफ़-ए-आदा में अपने बाज़ुओं को मुझे 'अख़्तर' कमाँ करना पड़ा है