हरीम-ए-जब्र में ख़ामोश भी रहा न गया सफ़ीर-ए-शब को नक़ीब-ए-सहर कहा न गया अजीब कैफ़ियत-ए-कर्ब है फ़ज़ाओं में गुलों ने बारहा चाहा मगर हँसा न गया शब-ए-सितम का बयाँ जुर्म ही सही कीजे गुमाँ न हो कि सर-ए-बज़्म कुछ कहा न गया ख़याल-ए-ख़ातिर-ए-साक़ी की ख़ैर रिंदों में कहीं भी तज़्किरा-ए-तिश्नगी सुना न गया दयार-ए-इश्क़ है गोया दयार-ए-कर्ब-ओ-बला यहाँ से उठ के कोई दर्द-आश्ना न गया अजब तरह के मुसाफ़िर थे हम कि बैठ रहे भटक के राह से दो गाम भी चला न गया हज़ार मरहला-ए-जब्र से हुए दो-चार दिल-ए-'शमीम' से जीने का हौसला न गया