हर-वक़्त उलझता है ये दिल ज़ुल्फ़-ए-दोता में समझाता हूँ कम-बख़्त न पड़ जा के बला में देखो न कभी ख़ू-ए-सितम अपनी बदलना मिलता है मज़ा हम को बहुत जौर-ओ-जफ़ा में किस लुत्फ़ से अय्याम गुज़रते हैं हमारे दिन नाला-ओ-फ़रियाद में शब आह-ओ-बका में मिट्टी हुई बर्बाद तिरे इश्क़ में ऐसी कुछ ख़ाक के ज़र्रे नज़र आते हैं हवा में क्यूँ चल दिए मय-ख़ाने से ऐ शैख़ ठहरना पोशीदा नज़र आता है कुछ आज अबा में कहती है ये तौबा कि गुनाहगार मैं बेहतर ऐ दिल कभी भूले से भी पड़ना न रिया में कर दूँ शब-ए-फ़ुर्क़त का बयाँ हश्र में लेकिन डरता हूँ तवालत न पड़े रोज़-ए-जज़ा में मरना जिसे कहते हैं वो है ज़ीस्त का आग़ाज़ मिलती है बक़ा सब को इसी राह-ए-फ़ना में किस के लिए अल्लाह ने जन्नत को बनाया बंदे तो यहाँ रहते हैं हर वक़्त ख़ता में मक़्बूल हुई हश्र में गर मेरी ख़जालत मिल जाएगी जन्नत भी गुनाहों की सज़ा में वाइज़ कहे कुछ भी हमें मा'लूम है यारब सौ ख़ुल्द हैं पोशीदा तिरी एक रज़ा में हिल जाती है दुनिया मिरी फ़रियाद से 'हाफ़िज़' तासीर ग़ज़ब की है मिरी आह-ए-रसा में