हसद की आग थी और दाग़ दाग़ सीना था दिलों से धुल न सका वो ग़ुबार-ए-कीना था ज़रा सी ठेस लगी थी कि चूर चूर हुआ तिरे ख़याल का पैकर भी आबगीना था रवाँ थी कोई तलब सी लहू के दरिया में कि मौज मौज भँवर उम्र का सफ़ीना था वो जानता था मगर फिर भी बे-ख़बर ही रहा अजीब तौर था उस का अजब क़रीना था बहुत क़रीब से गुज़रे मगर ख़बर न हुई कि उजड़े शहर की दीवार में दफ़ीना था