हस्ब-ए-वादा मुझ से मिलने वो कभी आया नहीं इस से बढ़ कर और कुछ भी हौसला-फ़रसा नहीं हिज्र था इस का बहुत सब्र-आज़मा मेरे लिए ग़म से पत्थर हो गया लेकिन कभी रोया नहीं दावत-ए-नज़्ज़ारा दे कर ऐसा वो ग़ाएब हुआ मेरी आँखों ने दोबारा फिर उसे देखा नहीं काटने को दौड़ते हैं मुझ को ये दीवार-ओ-दर जैसे मैं तन्हा हूँ वैसे कोई भी तन्हा नहीं मुर्तइश रहता है अब हर दम मिरा तार-ए-वजूद क्या गुज़रती है मिरे दिल पर कभी कहता नहीं कर रहा हूँ अपनी ये तरही ग़ज़ल नज़्र-ए-'मुनीर' ऐसा शाइ'र आज तक मैं ने कभी देखा नहीं कर के इस के वा'दा-ए-फ़र्दा पे 'बर्क़ी' ए'तिबार मैं कई दिन तक मुसलसल रात-भर सोया नहीं