ख़ुल्द में भी हस्ब-ए-आदत वा'ज़ फ़रमाएँगे क्या शैख़ हूरों से हजामत अपनी बनवाएँगे क्या वाँ धरा ही क्या है टीले और पहाड़ों के सिवा राकेटों पर उड़ने वाले चाँद पर पाएँगे क्या देखते ही रेशा-ख़तमी हो रहे हैं पीर जी उस मुरीदन से भी अपना अक़्द पढ़वाएँगे क्या पूछ बैठे गर कहीं धोती पहनने का सबब कोई हम को ये तो बतलाओ कि बतलाएँगे क्या भाई साहब एक ही का बोझ सर पर कम नहीं दूसरी इक और आफ़त अपने सर लाएँगे क्या ख़ुल्द में भी हो नहीं सकता है 'हाशिम' का निबाह उन को ग़म खाने की आदत है वहाँ खाएँगे क्या