हश्र तक याँ दिल शकेबा चाहिए कब मिलें दिलबर से देखा चाहिए है तजल्ली भी नक़ाब-ए-रू-ए-यार उस को किन आँखों से देखा चाहिए ग़ैर-मुमकिन है न हो तासीर-ए-ग़म हाल-ए-दिल फिर उस को लिक्खा चाहिए है दिल-अफ़गारों की दिलदारी ज़रूर गर नहीं उल्फ़त मदारा चाहिए है कुछ इक बाक़ी ख़लिश उम्मीद की ये भी मिट जाए तो फिर क्या चाहिए दोस्तों की भी न हो परवा जिसे बे-नियाज़ी उस की देखा चाहिए भा गए हैं आप के अंदाज़ ओ नाज़ कीजिए इग़्माज़ जितना चाहिए शैख़ है इन की निगह जादू भरी सोहबत-ए-रिंदाँ से बचना चाहिए लग गई चुप 'हाली'-ए-रंजूर को हाल इस का किस से पूछा चाहिए