हसीन-ए-पीर की महफ़िल में दीवाने नहीं आते जो शमएँ बुझ चुकी हैं उन पे परवाने नहीं आते सर-ए-महफ़िल कभी चप्पल वो लहराने नहीं आते रक़ीबों के सरों पर फूल बरसाने नहीं आते बुलंदी इश्क़-ए-कामिल और पस्ती है हवसनाकी जहाँ अंधे पहुँचते हैं वहाँ काने नहीं आते तुम्हारी हरकतों का शैख़ जी दुनिया में चर्चा है हक़ीक़त जानते हैं हम को अफ़्साने नहीं आते इलाही मस्कन-ए-बूम-ए-ख़ुश-इल्हाँ अब कहाँ होगा नज़र दुनिया के नक़्शा में भी वीराने नहीं आते मुहासे और चेचक की सजावट है वो चेहरे पर कि वो अब मुफ़्त भी तस्वीर खिंचवाने नहीं आते वो हाज़िक़ डॉक्टर भी हैं ब-यक-चश्मी के बाइ'स से मरीज़ उस को कभी भूले से दिखलाने नहीं आते