हसीन ख़्वाबों की महफ़िल सजाना भूल गया मिले वो रंज कि मैं मुस्कुराना भूल गया चराग़ाँ मैं ने किया सारे शहर में लेकिन ख़ुद अपने घर का अंधेरा मिटाना भूल गया कहानियाँ हैं बहुत मेरे हाफ़िज़े में मगर जो याद रखना था मैं वो फ़साना भूल गया तलाश-ए-ज़र में मैं फिरता रहा ज़माने में जो मेरे पास था मैं वो ख़ज़ाना भूल गया न जाने कैसे दुखों से नजात मिलती है हमारे घर में तो ग़म आ के जाना भूल गया मिला जो पेड़ परिंदा उतर गया उस पर ब-वक़्त-ए-शाम जब अपना ठिकाना भूल गया किसी के लब पे नहीं मेरे दर्द के क़िस्से तो क्या 'कमाल' मुझे ये ज़माना भूल गया