हसीं सुब्ह हसीं शाम चाहता हूँ मैं कि ज़िंदगी को ख़ुश-अंजाम चाहता हूँ मैं ज़रा सा मुस्कुरा के मेरी तरफ़ देख तो लो हूँ तिश्ना बादा-ए-गुलफ़ाम चाहता हूँ मैं नहीं है शक कोई इस में तो नेक-सीरत है ज़माने भर में तिरा नाम चाहता हूँ मैं वो जिस के वास्ते खाईं हैं ठोकरें कितनी उसी को हम-सफ़र हर गाम चाहता हूँ मैं तिरा ख़याल हो दिल में लबों पे ज़िक्र तिरा कि फिर से यूँ सहर-ओ-शाम चाहता हूँ मैं 'करन' ये कौन कहे बढ़ के मेरे साक़ी को कि उस के हाथों से इक जाम चाहता हूँ मैं