हसरत-ए-सिक्का-ए-बख़ील न कर अपने कश्कोल को ज़लील न कर कुछ न बोलेंगे मुद्दई' के ख़िलाफ़ दोस्तों को कभी वकील न कर बहस जारी रहे तो बेहतर है मेरे दा'वे को बे-दलील न कर मैं फ़रासत-गज़ीदगी का शिकार मुझ को फ़र्ज़ाना-ओ-अक़ील न कर हाथ ऊँचा रहे कुशादा रहे जेब को कीसा-ए-बख़ील न कर कोई हद है तिरी ज़रूरत की ज़िंदगी यूँ मुझे ज़लील न कर 'रम्ज़' क़ैद-ए-हयात झेल अभी इतनी उजलत मिरे ख़लील न कर