हसरत-ओ-यास का इक नक़्श-ए-परेशाँ समझा हाल-ए-उफ़्तादा दिल-ए-शाम-ए-ग़रीबाँ समझा क़ाबिल-ए-दाद है उस शख़्स की रंगीनी-ए-फ़िक्र दिल-ए-ख़ूँ-गश्ता को जो ज़ीस्त का उनवाँ समझा बे-रुख़ी ने तिरी ग़ारत किया मामूरा-ए-शौक़ आज देखा तो उसे शहर-ए-ख़मोशाँ समझा यास ने छीन ली क्या इश्क़ की बालिग़-नज़री वुसअ'त-ए-कौन-ओ-मकाँ को जो ये ज़िंदाँ समझा कुछ न बन आया जो सर धुन के तो ज़ेहन-ए-शाइर दफ़्तर-ए-हुस्न को तसनीफ़-ए-बहाराँ समझा ख़ोशा-चीं शौक़ है उस तब-ए-रसा के फ़न का जिस के अफ़्कार को मैं जन्नत-ए-इम्काँ समझा थे वो ख़ल्वत-कदा-ए-नाज़ के पर्दे 'क़ाज़ी' बर्ग-ए-गुल जिन को मिरा दीदा-ए-हैराँ समझा