हस्ती को जमाल दे रहा हूँ मैं तेरी मिसाल दे रहा हूँ मअनी पे चढ़ा के ग़ाज़ा-ए-नौ लफ़्ज़ों को ख़याल दे रहा हूँ माज़ी पे निगह है अपनी गहरी फ़र्दा को मैं हाल दे रहा हूँ मुश्किल भी है और सहल भी है ऐसा मैं सवाल दे रहा हूँ शीशागरी है अजीब मेरी आईने को बाल दे रहा हूँ माहौल में है कुछ ऐसी ख़ुनकी जज़्बात को शाल दे रहा हूँ क्यूँ आरिज़-ए-वक़्त अब न निखरे फ़न का हसीं ख़ाल दे रहा हूँ इमरोज़ के जितने हैं मसाइल फ़र्दा ही पे टाल दे रहा हूँ फँस कर यूँ शिकंजे में गुनह के मकड़ी को मैं जाल दे रहा हूँ गुमराह ज़माना है तो क्या ग़म? शम्-ए-मह-ओ-साल दे रहा हूँ दिल टूट गया तो क्या 'करामत' पैग़ाम-ए-विसाल दे रहा हूँ