हाथ में है इक पुरानी डाइरी खोलने बैठा हूँ गिर्हें याद की उस से वा'दा है मिलेंगे शाम को शाम कितनी देर के बाद आएगी हम ने सोचा था चलेंगे सैर को रास्तों ने फिर सफ़ेदी ओढ़ ली गर्म कमरों से निकलता कौन है महफ़िलें उजड़ी हुई हैं शहर की चुभ रही है मेरी आँखों में बहुत चार-सू फैली हुई बे-मंज़री प्यार की ख़ुशबू से ख़ाली निस्बतें राब्ते सब दिल के रंगों से तही इक तअ'ल्लुक़ बनते बनते रह गया खिलते खिलते इक कली मुरझा गई