हवा चली तो बहुत देर तक रुकी ही नहीं तुम्हारी याद कि जैसे कभी थमी ही नहीं समाअ'तों में मिरी गूँजती रही हर दम वो एक बात जो उस ने कभी कही ही नहीं न जाने किस लिए उस का ही इंतिज़ार रहा वो एक शख़्स कि जिस से कभी मिली ही नहीं हवा ने जब भी उड़ाया गई फ़लक की तरफ़ अजीब ख़ाक थी जो ख़ाक में मिली ही नहीं कभी लगा कि बहुत तेज़-रौ रहे लम्हे कभी लगा कई सदियों से मैं चली ही नहीं कली भी दिल में मोहब्बत की इक हँसी थी मगर कभी वो बाग़-ए-तमन्ना में तो खिली ही नहीं मैं इक सफ़ीर हूँ 'रज़िया' गुदाज़ लहजों की ख़फ़ा किसी से कभी देर तक रही ही नहीं