हवा का जाल भला टूट कर बिखरता क्या मिरी सदा का परिंदा उड़ान भरता क्या न दस्त-ओ-पा ही सलामत रहे न सर बाक़ी अब इस से बढ़ के कोई सानेहा गुज़रता क्या कि उस ने तार-ए-तख़ातुब को ना-गहाँ छेड़ा उलझ के रह गई आवाज़ सुर उभरता क्या बिखरते टूटते रिश्तों का सख़्त-जाँ मंज़र बिछड़ते वक़्त मैं आँखों में क़ैद करता क्या लरज़ रही थी अंधेरे की सीढ़ियाँ सारी दयार-ए-शब में उजाला कोई उतरता क्या कनार-ए-आब खड़ा सोचता रहा 'शहज़ाद' जो नक़्श डूब चुका था वो फिर उभरता क्या