हवा के दोश पे किस के पयाम आते हैं हमारे घर के दर-ओ-बाम महके जाते हैं मैं सूखी डाल हूँ लेकिन तुम्हारी यादों के परिंदे आ के सर-ए-शाम बैठ जाते हैं हमारी आँखों में यूँ इंतिज़ार रौशन है नदी में जैसे कई दीप झिलमिलाते हैं चली हैं दौर-ए-तरक़्क़ी की आँधियाँ क्या क्या शराफ़तों के दर-ओ-बाम टूटे जाते हैं धुँदलका शाम का छाने लगा है सोचती हूँ कि इस समय तो परिंदे भी लौट आते हैं ये ज़िंदगी वो कड़ी धूप है 'नसीम' यहाँ न जाने कितने हरे पेड़ सूख जाते हैं