हवा के वास्ते खोलीं थीं खिड़कियाँ घर की मगर ये क्या कि चली आई ख़ाक बाहर की ख़ला में घूरते रहना ही अच्छा लगता है नहीं है आँख को ख़्वाहिश किसी भी मंज़र की किनारे ख़ुश्क लबों की तरह चटख़्ते हैं हर एक मौज ही प्यासी है क्या समंदर की यहाँ से लोगों पे पथराव बे-मआ'नी है हिफ़ाज़त आप से होगी न काँच के घर की ज़मीन देख के चलता हूँ इस तरह 'काविश' कि जैसे क़दमों तले से ज़मीन अब सरकी