हवा की अंधी पनाहों में मत उछाल मुझे ज़मीं हिसार-ए-कशिश से न तू निकाल मुझे सिवा-ए-रंज-ए-नदामत न कुछ मिला तुम को मैं कह रहा था बनाओ न तुम मिसाल मुझे शिकस्त-ए-दिल ने अजब ग़म को सूरतें दी हैं रफ़ाक़तों की घड़ी है ज़रा सँभाल मुझे मैं ख़्वाब ख़्वाब जज़ीरों की सैर को निकलूँ उठा के पर्दा-ए-शब हैरतों में डाल मुझे कभी कभी उसे दिल से अज़ीज़-तर जाना ये सर जो दोश पे लगता रहा वबाल मुझे ज़मीन मैं तिरी चाहत में ज़ेर-ए-दाम आया असीर कर नहीं पाया था कोई जाल मुझे बयाज़-ए-वक़्त पे उस ने लिखा है नाम मिरा यक़ीन कर कि न होगा कभी ज़वाल मुझे सुख़न के कुछ तो गुहर मैं भी नज़्र करता चलूँ अजब नहीं कि करें याद माह ओ साल मुझे