हवा से दस्त-ओ-गरेबाँ हुआ तो भेद खुला मैं ख़ुद दिए की जगह पर जला तो भेद खुला हम अपने नक़्श भी खो बैठे उस हसीं के लिए हमारे हाथ लगा आईना तो भेद खुला मुझे ख़बर ही न थी ग़म भी हैं ज़माने में जब आसमाँ मिरे सर पर गिरा तो भेद खुला मैं चीख़ता ही रहा बे-असर सदाएँ दीं किसी तरफ़ न मिला जब ख़ुदा तो भेद खुला किसी ने हाथ बढ़ाया न कोई पास आया रह-ए-वफ़ा पे मैं थक कर गिरा तो भेद खुला ये हादसे मुझे पत्थर समझ रहे थे 'अदील' फिर एक रोज़ मैं जब रो पड़ा तो भेद खुला