हवा से ज़र्द पत्ते गिर रहे हैं किताबों के वरक़ बिखरे पड़े हैं इसी पानी में मछली का मकाँ है इसी पानी में प्यासे हम मरे हैं जहाँ गुलज़ार खिलता था हँसी का वहीं चिमगादड़ों के घोंसले हैं अंधेरे में डरा देते हैं हम को ये कपड़े खूटियों पर जो टँगे हैं कभी तो ख़ाक में वो भी मिलेंगे अभी जो चाँद से 'फ़िक्री' बने हैं