हवा से उजड़ कर बिखर क्यूँ गए वो पत्ते जो सरसब्ज़ शाख़ों पे थे हरी घास किस के लहू से जली वो तितली के रंगीन पर क्या हुए नहीं कोई चिड़िया किसी डाल पर दरख़्तों पे मकड़ी ने जाले बुने दरीचों के शीशों का दिल तोड़ कर मकाँ ख़ाली रूहों के मस्कन बने है ख़बरों के चेहरों पे वहशत बहुत मैं देखूँ जो उन को मिरा जी डरे जो आँखों की 'फ़िक्री' हँसी छीन लें वो किस तीरा जंगल के हैं भेड़िये