हवा तो है ही मुख़ालिफ़ मुझे डराता है क्या हवा से पूछ के कोई दिए जलाता है क्या गुहर जो हैं तह-ए-दरिया तो संग-ओ-ख़िश्त भी हैं ये देखना है मिरी दस्तरस में आता है क्या नवाह-ए-जाँ में जो चलती है कैसी आँधी है दिए की लो की तरह मुझ में थरथराता है क्या गले में नाम की तख़्ती गुलाब रखते हैं चराग़ अपना तआरुफ़ कहीं कराता है क्या निशान-ए-क़ब्र भी छोड़ा नहीं रक़ाबत ने किसी को ऐसे कोई ख़ाक में मिलाता है क्या फ़ना के बाद ही मिलती है ज़िंदगी को दवा 'तलब' ये रम्ज़ तुम्हारी समझ में आता है क्या